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जम्मू जो कभी शहर था

पदमा सचदेव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 717
आईएसबीएन :81-263-0886-9

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डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, हिन्दी की कथाकार, साक्षात्कारकर्त्री पदमा सचदेव का रोचक सामाजिक उपन्यास...

Jammu Jo Kabhi Shahar Tha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, हिन्दी की कथाकार, साक्षात्कारकर्त्री पदमा सचदेव का यह नया उपन्यास है। इस उपन्यास के केन्द्र में सुग्गी नाईन है। एक ऐसी औरत, जो है तो आम, पर है बड़ी खास। इस उपन्यास में सुग्गी के माध्यम से जम्मू का दस्तावेज भी है और उसका इतिहास भी। इतिहास उतना ही है, जितना सुग्गी नाईन जानती है। आज नाई-नाईनें शहरों में तो लगभग नहीं ही दिखाई देतीं, गाँवों में भी अब पहले जैसा उनका दबदबा और अस्तित्व नहीं रहा। आज उड़ते हुए जहाज से नीचे देखें तो ज्यादा जंगल सीमेण्ट के ही दिखाई देते हैं। इन जंगलो में ही कहीं हमारा वो इतिहास छिप गया है, जिसे नाइनें बुनती थीं। हर युग की नाइनें अलग रूप रंग लिये होती हैं। आज भी आपको मिल जायँगी। लेकिन सुग्गी सिर्फ उपन्यास में मिलेगी।
पद्मा सचदेव की भाषा में जो लयात्मकता, जो गेयता और शब्दों का चुनाव होता है वह अद्भुत है। इस उपन्यास में पद्मा जी ने सुग्गी के माध्यम से एक प्रकार से जिस लोक-गायिका के जीवन और जिस जम्मू शहर का चित्र खींचा है उसमें भाषा का प्रवाह बेजोड़ बन पड़ा है। वैसे तो पद्मा सचदेव ने जम्मू शहर की समस्याओं और एक मरती हुई सांस्कृतिक धरोहर को लेकर कई संस्मरण, रिपोर्ताज और लेख लिखे हैं, लेकिन इस उपन्यास में जिस तरह से उन्होंने समाज के सांस्कृतिक व्यक्तित्व को लेकर घटनाओं को बुना है वह चकित कर देने वाला है।
इस उपन्यास को प्रस्तुत करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।

दो शब्द


जब बचपन में बातें करनी शुरू कीं तो पिताजी ने संस्कृत के श्लोक रटवा दिये। ढाई-तीन बरस की उम्र में जिन्होंने पद्मा और उनके भाई आशुतोष के मुंह से श्लोक सुने हैं वो आज भी याद करते हैं। संस्कृत भाषा की लयात्मकता, उसके विलक्षण शब्दों का जुड़ाव, उसकी उत्कृष्ट संगीतमय ध्वनि पद्मा की रूह में पैठ गयी। जब बँटवारे के समय पिता न रहे, उस ख़ला को इस ध्वनि ने भरा। अपने गाँव पुरमण्डल में लोकगीतों की डोर थामकर डोगरी की जो गीत-कविताएँ रचीं, उसमें संस्कृत की लयात्मकता और लोकगीतों की अद्भुत बुनावट का मिश्रण था। कविता लिखना जैसे पूर्ण होने की तरफ एक और क़दम।
1979 में मुम्बई में डॉ. धर्मवीर भारती के प्रोत्साहन से गद्य लिखना शुरू किया। गद्य का एक-एक शब्द डॉ. भारती का सदक़ा है।
पद्मा जी का यह चौथा उपन्यास है-‘जम्मू जो कभी शहर था’। अपना शहर जब एकदम बदल जाता है तो पुराने शहर की स्मृतियाँ बरबस आकर घेरे रहती हैं। मीर के इस शेर ने भी उकसाया। शेर यूँ है :



‘‘दिल्ली जो एक शहर था आलम में इन्तिख़ाब
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के’’

तो साहेब ‘जम्मू दो एक शहर था’ पेश है। वो जम्मू जो मुझे याद आता रहता है। आज तो जम्मू कूड़ाखाना हो गया है। भीख माँगनेवाले भी बाहर से आ गये हैं। वैसे तो सारा भारत एक घर है, पर जब शेख अब्दुल्ला की सलाह पर महाराजा हरिसिंह ने रियासत में किसी भी बाहर के आदमी को आकर बसने में रोक लगायी तब यही मंशा रही होगी कि भीड़ न हो जाय, कहीं भीड़ न हो जाय। इसमें बेटियाँ चपेट में आ गयीं। जो लड़की बाहर शादी करे वो यहाँ की शहरी नहीं है पर लड़कों के रियासत दी गयी, वो चाहे फारुख अब्दुल्ला हों या कोई और। उनकी पत्नियाँ बिना रियासत में पैदा हुए, बिना भाषा जाने यहाँ की शहरी हो गयीं। पर पद्मा सचदेव की तरह और कितनी ही लड़कियाँ यहाँ दो ग़ज ज़मीन भी नहीं ले सकतीं। कुछ इस दर्द ने, कुछ सुग्गी नाइन ने, कुछ पुराने शहर ने यह उपन्यास लिखवा दिया। हो सकता है यह उपन्यास पढ़कर आपको भी अपना पुराना शहर याद आ जाय।

-पद्मा सचदेव


बात उन दिनों की है जब शहर की नब्ज़ नाइनों के हाथ में रहती थी कुएँ-बावड़ियों से बहँगियों में भरकर पानी लाते थे नाई। उनके हाथों-पाँवों में मेहँदी लगी रहती थी। तवी नदी के पास वाले कुएँ का पानी जितना मीठा था, उतनी ही चढ़ाई थी तवी की ढक्की की। इस ढक्की पर एक कन्धे से दूसरे कन्धे पर बहँगियाँ रखते ये नाई कई बख्तावर घरों में पानी पहुँचाते थे। आम आदमी तो नलके का, तालाब का या शहर के बीच किसी कुएँ का पानी पी लेता था, पर तवी नदी वाले कुएँ का पानी तो अमृत था।

खूब चौड़े पाट पर बहती तवी का पानी बीचोबीच गुल्लू के बाड़े को छोड़कर दो पाटों में बहता था। खूब भरा-भरा मस्त और जम्मू की पहाड़ियों की परछाइयों का बाँकपन समोये हुए। मुँह अँधेरे तवी की ढक्की उतरकर नहा आती थीं डोगरी औरतें। हाथ में पानी से भरा लोटा लेकर शिवजी को जल चढ़ाती थीं औरतें। ढक्की चढ़ते समय फूलती साँस से बिसनपते (विष्णुपद) गाती थीं औरतें। धीरे-धीरे, जैसे ऊँ-ऊँ करती मधुमक्खियाँ अपने छत्ते में शहद इकट्ठा कर रही हों। जम्मू उस वक्त शहद के छत्ते की ही तरह था। बिसनपते गाते, मन्दिरों में परिक्रमा करके आते हुए औरतों का दिन चढ़ जाता था। उसी वक्त जग जाता था शहर। शहर के ऊपर से बिसनपतों की आवाज़ें हवा की तरह बह जाती थीं।

धीरे धीरे आँख मलते हुए उठने का यत्न करते शहर को तारों की रोशनी में आसमान के खुलने का आभास होता। कहीं सूरज निकलने से पहले गालों पर अबीर को गाढ़ा करती, आसमान पर फैलती सुबह चैतन्य हो उठती, एकदम उठकर खड़ी हो जाती और तवी में जाकर दो-तीन डुबकियाँ लगाती। उसी वक्त उसे देखने शैतान सूरज रजाई में से अपना थोड़ा-सा मुँह निकाल मासूम बालक-सा उसे रोककर कहता-क्या मैं आ जाऊँ ?
सुबह का उत्तर होता-मेरे मना करने पर क्या तुम नहीं आओगे ?

दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते और दिन निकलकर खड़ा हो जाता-एक और दिन। मन्दिरों की घण्टियों के स्वर मुखर हो उठते। हाथों में शिव की पिण्डी पर ढाले जानेवाले जल का लोटा; फूल-फूल धूप-बाती, नैवैद्य आदि से सजी काश्मीरी टोकरियाँ और अपनी गिद्दी (लपेटा हुआ वस्त्र) या धोती को सँभालती हुई आँखें मन्दिरों की शोभा दुगुनी करने पहुँच जातीं। उन दिनों तवी नदी में नहानेवाली औरतों और मर्दों की कमी न थी। मुँह अँधेरे ही ढक्की उतरकर औरतें तवी के निर्मल जल में नहाकर नदी के पास बने कुएँ में से एक बटलोई पानी ले आतीं। पवित्तर पानी। पानी नलकों में भी आता था, लेकिन यह तो पवित्तर जल था। अपने शहर में बहती तवी के किनारे पर बने अपने कुएँ का।

शहर के नामी पण्डित देवदत्त की पत्नी सोमा ने गोबर लिपी रसोई में जाकर तवी वाले कुएँ से लाये पानी में मूँग की हरी दाल देगची में चढ़ा दी। छोटी-छोटी सूखी टहनियाँ भक्ख करके जलीं तो पूरी रसोई उजली हो गयी। सोमा ने अपने हाथ आग की लपटों में सेंकने शुरू किये तो धीरे-धीरे दुबली पतली लड़कियाँ खूब उजलाकर धीमी हो गयीं। पण्डिताइन ने सोचा-बड़ी लकड़ी आग पकड़ चुकी है, दाल तो इसी में हो जाएगी।

ठाकुरद्वारे से पण्डित देवदत्त की आवाज भी अन्तिम श्लोकों पर आ गयी थी। पण्डिताइन ने चूल्हे के आगे अंगारों पर चोटी कड़ाही रखकर पूरे हाथ से गाय का संदली-सा घी डाल दिया। घी के बुलबुलों के बैठते ही आधा चम्मच सोंठ और दर्जन-भर रात के भीगे बादाम छिलका उतारकर डाल दिये। खुशबू से आँगन महक उठा। दूध से कड़ाही भर गयी। ऊपर घी तैरने लगा तो पण्डिताइन ने भिगोकर रखा केसर भी डाल दिया। दूध धीरे-धीरे उबाल खाने लगा। पण्डित देवदत्त के ठाकुरद्वारे में महक पहुँची तो उन्होंने जलहरी में थोड़ा और पानी डालकर पार्थिव शिव को चढ़ाये गये बेलपत्र सीधे किये फिर जल को आंखों पर लगाकर शीश झुकाया। उठकर चौके में आये तो पत्नी को रोज की तरह मुस्कराकर देखा।
सोमा ने आसन आगे करके काँसे के बड़े कटोरे में दूध डालकर पति के आगे रख दिया। पति ने समय पर उसकी पकड़ को सराहते हुए उसे निहारा और फिर कहा, ‘‘क्यूँ पण्डिताइन, आज तो ठण्ड और भी बढ़ गयी लगती है।’’

‘‘पन्त जी, ठण्ड तो अभी और बढ़ेगी।’’ सोमा पति को हमेशा पन्त जी ही कहती थी। फिर उसने चूल्हे में जलती मोटी लकड़ी को चूल्हे की दीवार से झकझोरा और कहने लगी, ‘‘ठण्डी तो तवी की ढक्की पर भी बहुत थी, पर तवी का पानी गुनगुना था। नहाकर निकलते ही देह गर्म हो गयी। ढक्की चढ़ने पर तो शॉल की जरूरत पड़ती ही है।’’
खूब औटाया हुआ दूध तृप्ति से पीते हुए पण्डित जी ने कहा, ‘‘आज तुम्हें नहाकर आने में कुछ देर नहीं हो गयी ?’’
‘‘हाँ, पन्त जी, आज बड़ा कौतुक हो गया। मैं और सुग्गी ढक्की उतर रहे थे तो बिजली की रोशनी में हमने देखा, ढक्की के मोड़ पर साँप का एक जोड़ा खेलने में मस्त था। अब जब तक वो न जाए, हम तो आगे बढ़ नहीं सकती थीं। वो तो भला हो सुग्गी का, कुछ देर तो वो खड़ी होकर तमाशा देखती रही।

फिर आँखें मूँदकर हाथ जोड़कर उसने कहा, ‘हे नाग देवता, समय पर नाथी को अगर नाश्ता न मिला तो आपको पता ही है, वो फिर अपनी शादी करवाने पर जोर देगा। आप तो जानते हैं, गहनों के बिना घर में बहू नहीं आ सकती और जो गहने मेरे पास थे वो तो उसका बाप बेच-बाँटकर खा गया। अब शादी के लिए पैसे भी कहाँ हैं। इसके बाप के पास तो कानी कौड़ी भी न थी।’ इसके पहले कि सुग्गी का पति-पुराण पूरे जोबन पर आता, साँप का जोड़ा पता नहीं कब गायब हो गया। उस जगह पर पहले मेरी ही नजर पड़ी तो मैंने कहा-‘भई, जिन्हें कहानी सुना रही हो, वो तो चले गये।’

पण्डित जी जी खोलकर हँसे। सोमा ने भी हँसते-हँसते कहा, ‘‘अपनी बात करते समय सुग्गी किसी और की बात नहीं सुनती।’’
पण्डितजी ने हाथ धोकर कहा, ‘‘पण्डिताइन, हमारी थैली दे देना। आज भुवनेश्वरी के यहाँ गरुड़ का पाठ करना है। कुछ समय भी लग सकता है।’’
सोमा ने सामान देते हुए सोचा-आज एक गडवी और आ जाएगी। भीतर वाली कोठरी की दीवारें तो ऊपर तक गडवियों से चिनी हुई हैं। बाज़ार में कहीं बिकवाने भी भेजूँ तो पन्त जी का नाम खराब होता है। पन्त जी तो अब दिन ढलने पर ही आएँगे। देसी चाय धीरे धीरे उबलती रहे, वही अच्छा है।
उनके जाते ही उसने खमीरी रोटियों के लिए परात निकाली। उसमें आटा डालकर उसने बीचोबीच गोल जगह बनायी। फिर उसमें पहले दिन का रखा ख़मीर घोल दिया। अब दाल हो जाये तब तक आटा भी ख़मीरा हो जाएगा। सर्दियों में जब तक गुँधे हुए आटे पर कोई गर्म कपड़ा न डालो, ख़मीर आसानी से नहीं उठता।

 बुझ गयी लकड़ियों को उसने झाड़ा तो भक्क से आग जल उठी।  दाल गलने में समय लगता ही है। दालान में आकर सोमा ने सुत्थन पहनी। टाँगें एकदम गर्म हो उठीं। सुबह सुत्थन पहन लो तो सारा दिन आराम रहता है। उसने डोगरी खिलका कुर्ता पहनकर ऊपर शॉल लिया ही था कि ड्योढ़ी से कामे की आवाज़ आयी-
‘‘पण्डिताइन जी, घास का गट्ठर लाया हूँ।’’ सोमा ने बाहर निकलकर कहा, ‘‘परसू, आजकल घास कहाँ से लाते हो ? भैंस तो दूध ठीक दे रही है पर गायों ने एकदम कम कर दिया है। तुम्हें पता है, पन्त जी सुबह सिर्फ गाय के दूध का काढ़ा ही पीते हैं।’’
परसू ने सिर खुजाते हुए कहा, ‘‘पण्डिताइन, अपनी छोटी गाय तो लगता है फिर नयी हो गयी है। दूध तो अब कम ही होता जाएगा। मैं तो घास तवी के जंगल से ही लाता हूँ।’’

पण्डिताइन थोड़ी हैरान हुई। गाय नयी हो गयी, मुझे पता ही न चला। कभी जाती है तो नयी होने में कौन समय लगता है। उसने परसू से कहा, ‘‘चलो, ठीक है। इसका समय भी है। अब मैं गायों को थोड़ी खली ज्यादा देनी शुरू कर दूँगी। परसू, मैंने तेरी कम्मो के लिए एक सुत्थन कुरता भी निकालकर रखा है। जाती बार ले जाना।’’
परसू ने खुश होकर कहा, ‘‘पण्डिताइन, आप सबका ख़याल रखती हैं। उसने तो कपड़ों के लिए मेरी नाक में दम कर दिया है। इस बार ठण्ड भी ज्यादा पड़ रही है। माता के पहाड़ों पर कल रात भी बर्फ गिरी लगती है। भला हो आपका, पण्डित जी का दोहरा पायजामा पहनकर मेरी टाँगें तो गर्म ही रहती हैं। कोई पुराना शॉल हो तो कम्मो के लिए हो जाये। अन्दर-बाहर जाने के लिए उसके पास कोई शॉल नहीं है।’’

‘‘परसू, देख दूँगी। देखो, आँगन में जो लकड़ी का मोटा तना पड़ा है, कुल्हाड़ी लेकर उसके टुकड़े कर जाओ, पर पिछवाड़े में करना। वहाँ भी सारा दिन धूप पड़ती है। शाम को भीतर रखवा दूँगी।’’
परसू ने कहा, ‘‘पण्डिताइन, देसी चाय तो आपने बनायी ही होगी, न हो तो दो। खमीरे भी साथ कर देना। खाली पेट तो कुल्हाड़ी भी कहाँ उठायी जाती है।’’
पण्डिताइन उठकर जाने लगी तो परसू ने जोड़ा, ‘‘पण्डिताइन, गलगल के अचार की फाँक भी ऊपर रख देना। दोपहर तक का काम हो जाएगा।’’
सोमा ने मन ही मन सोचा-परसू बातें बनाना खूब जानता है, पर किसी काम को भी मना नहीं करता। हम भी तो सारे शहर का दान खाते हैं। थोड़ा दान-पुण्य ही सही। भूखे को खिलाने से बड़ा पुण्य कोई नहीं है।

सोमा ने छाबड़ी (रोटियों की टोकरी) में से तीन खमीरे निकाले। उन पर गलगल का अचार रखा और चाय का अड्डीवाला गिलास भरकर उसके बर्तन में जाकर उड़ेल दी। परसू खुश हो गया। तीन ख़मीरों से तो उसका कुछ नहीं बनने वाला, पर पेट को हौसला तो ही हो जाएगा। उसने खा-पीकर पिछवाड़े में लकड़ी काटनी शुरु करदी।
पण्डिताइन दालान में बैठकर सुत्थन की चूड़ियाँ सीधी करने लगी। उसे लगा, सुत्थन तंग हो गयी है। शायद मोटी हो रही हूँ। खिलके कुर्ते के भीतर उसने पण्डित जी की गर्म बनियान पहनी। बदन गर्म हो गया। उसने बालों में कंघी करके शीशे में देखकर सोचा-अखरोट की रंगीन दातुन कुछ ज्यादा ही तीखी है। होंठ एकदम उन्नाबी हो गये हैं। आज दाल के बघार में कुटी हुई मिर्च कम डालूँगी, नहीं तो खाना मुश्किल हो जाएगा।

बाहर से खनखनाती हुई आवाज आयी, ‘‘ऐ सोमा कहाँ हो भई।’’ पण्डिताइन मुस्करायी। उसे सोमा सिर्फ सुग्गी ही कहती है। आज आवाज़ में काफी तीखापन है। जरूर कोई फड़कती हुई खबर होगी। सुग्गी दालान में आकर खड़ी हो चुकी थी। उसने अँगीठी में बुझते जाते कोयलों पर हाथ ऐसे रखे जैसे कोई रोटी सेंकती है। पण्डिताइन ने कहा, ‘‘सुग्गी, सब्र तुममें कभी भी न था। हाथ जल जाएँगे, थोड़ी दूर रखो।’’
सुग्गी ने कहा, ‘‘ठीक है, ठीक है। जल्दी से देसी चाय ले आ। फिर तुझे देखना, क्या खबर सुनाती हूँ।’’
सोमा ने कहा, ‘‘अच्छा, ये देसी चाय क्या खबर सुनाने की मजदूरी है ?’’
सुग्गी अब उकड़ूं की हालत से पसरकर अच्छी तरह कम्बल पर बैठ गयी थी। उसने इत्मीनान से कहा, ‘‘जाओ, पहले चाय लाओ। मठरी तो पड़ी होगी ? अचार भी ले आना।’’
पण्डिताइन मुस्कराती हुई रसोई में चली गयी।
सुग्गी ने एक मठरी का चूरा किया और चाय में डाल दिया। फिर चाय सुड़ककर कहने लगी, ‘‘अरी सोमा, खबर सुनोगी तो फड़क उठोगी।’’

पण्डिताइन ने कहा, ‘‘चाय पीने का शऊर तो तुम्हें है नहीं, खबरें इकट्ठी करने में ही लगी रहती हो।’’
सुग्गी ने मठरी ख़त्म करते हुए कहा, ‘‘मुझे शऊर मत सिखाओ। वजीरों-अहलकारों के साथ उठती-बैठती हूँ। तुम्हें क्या पता, बाहर क्या हो रहा है। तुम चाय बनाओ, यही तुम अच्छी बनाती हो। मजा आ गया। नमक और चीनी की घुलाहट से आत्मा तृप्त हो गयी। अब सुनो खबर।’
पण्डिताइन उसे टुकुर-टुकुर देखने लगी।
‘‘अरी सोमा, जगतराम को तो जानती हो न ! अरे वही जिसकी कनकमण्डी में गेहूँ दालों की बड़ी दुकान है। अरे, ऐसे क्या मूर्खों की तरह देख रही हो ? वही पूरो का घरवाला।’’
सोमा ने कहा, ‘‘मालूम है, बात तो बताओ। उसे क्या हुआ ?’’

‘‘उसे क्या होना है ! ऐसे मर्द मुए को क्या होगा ! एक नम्बर का लम्पटबाज है। पर वो जाने दे, खबर सुन। तुम्हें तो पता ही है, वो जगता कप्फन औरतों की गोरी एड़ियों का शौकीन है। उसने खुश होकर घड़े का मुँह खुलवा दिया।’’
सोमा को अपनी तरफ टुकुर-टुकुर देखते सुग्गी ने कहा, ‘‘फिटे मुँह, तुझे ये भी नहीं पता, घड़े का मुँह कैसे खुलवाते हैं ! अरे तवी वारे कुएँ से झीवर घड़ा भरकर लाते हैं और महालक्ष्मी मन्दिर के थड़े पर रख देते हैं। उन पर मलमल का कपड़ा बँधा होता है। जो भी घड़े का मुँह खुलवाता है, उसे चवन्नी देनी पड़ती है और फिर उसके संगी-साथी और दूसरे भी पानी पीते हैं। मर चुड़ैल, तू तो एकदम मूरख है। सुग्गी, तेरी मित्तरी भी किसके साथ है ! तू तो घर बैठकर अपने पण्डित का रस्ता देखती रहा कर। तुझे क्या पता, दुनियाँ कहाँ से कहाँ तक पहुँच गयी है।

‘‘हाँ, तो मैं जगते की बात कर रही थी। अरी सोमा, इस करमजले डोम की नज़र मुझ पर भी थी। जब मेरा नाई मरा तो एक दिन कहने लगा (नकल करते हुए)-सुग्गी, चिन्ता नहीं करना। किसी चीज की जरूरत हो तो कहना। दुकान की दीवारों पर अनाज की बोरियाँ चिनी रहती हैं। जब कहे पहुँचवा दूँ। मैंने भी कह दिया-मेरी इतनी चिन्ता क्यूँ है तुझे, मैं क्या तेरी भाभी लगती हूँ ? इतनी चिन्ता अगर तुमने अपनी बीवी की की होती तो वो दो बार ज़हर खाने की कोशिश न करती।’’ सुग्गी ने एक और मठरी का चूरा चाय में डाला और चाय सुड़ककर कहने लगी, ‘‘मजा आ गया चाय में। असल में तुम चीनी और नमक इस क़दर नाप-तोलकर डालती हो जैसे सोने में थोड़ी सी पीतल ! और भई, तुम्हें पता है, अगर पीतल न डालो तो गहना नहीं बन सकता। भगवान ने भी देखो, क्या क्या रंग रचाये हैं।’’

सोमा बोली, ‘‘भगवान ने नहीं, सुनार ने। खोट तो वही मिलाता है। तेरा पेट भर गया है, अब मुँह से कुछ और तो बोल।’’
‘‘हाँ, अब तो तुझे भी स्वाद आने लगा है। तो सुनो, वो जगता है न, तो आज सुबह जब औरतें पक्का डंगा के महालक्ष्मी मन्दिर से घर जा रही थीं तो इसने देखा कि ढाई गज दुपट्टे में लिपटी एक औरत की एड़ियाँ अपनी उन्नाबी सुत्थन से जैसे फूट-फूटकर निकल रही हैं। एड़ियों के सिवाय मुआ क्या देखता ? पूरा घूँघट निकाल औरत पूरी ढँकी हुई थी, सिर्फ एड़ियाँ गोरी गोरी एड़ियाँ ही दिखाई दे रही थीं।’’
‘‘ऐ...पूरो ने कब ज़हर खाया ?’’ सोमा ने हैरान होकर पूछा।



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